किसानो की आत्महत्या: कुछ अनछुए सवाल
किसानों की आत्महत्या के समाचार ने पुरे देश की आत्मा को हिलाकर रख दिया है.
सब स्तब्ध हैं, आश्चर्यचकित हैं, पर खामोश भी हैं. कहीं कहीं कभी कभी किसी कोने से
कोई आवाज़ उठ जाती है. कुछ समय तक सरगर्मी बनती है. अख़बारों की , टेलीविज़न चैनलों
की सुर्खियाँ बनती है. और फिर जून के महीने की आंधी की तरह रेत की एक चादर उढ़ाकर
खामोश हो जाती है. इन सब जनमानस को जगाने के लिए फिर जरुरत पड़ती है एक और क़ुरबानी
की, एक और आत्महत्या की.
हम सब सवाल पूछ रहे है, की आखिर ऐसा क्यों हैं, ऐसा क्या हो रहा है जिससे
परेशान हो, त्रस्त हो कर एक इंसान अपनी जान खुद ही लेने पर उतारू हो जाता है. क्या
कहीं कुछ ऐसा हो रहा है जो हम समझ नहीं पा रहे. शायद नहीं. हमने समझ लिया है इस पूरी
समस्या को. किसान आत्महत्या करते है
क्योंकि उनकी फ़सल खराब हो गयी, या फिर वो क़र्ज़ नहीं चूका पाया. अन्य शब्दों
में अगर कहें, अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण किसान आत्महत्या करते हैं. इस
नतीजे पर पहुंचकर हमने इस समस्या को एक आयाम दे दिया. अब हम जानते है की मुद्दा
क्या है, या यूँ कहें की कारण क्या है. कारण स्पष्ट है.आर्थिक हालत.
पर क्या वास्तव में ये मुद्दा है, क्या सच में ये कारण है. यहीं पहुंचकर मैं
अपने आप से कुछ सवाल पूछता हूँ. क्या वास्तव में देश का किसान अपने आप को आर्थिंक
रूप से इतना कमजोर पता है की उसके लिए आत्महत्या जैसा क़दम उठाने को तैयार हो जाता
है?
कुछ सवालों के जवाब के लिए इतिहास में जाना ज़रूरी है. बहुत सारे इतिहासकारों
और समज्शाश्त्रियों ने भारत की ग्रामीण व्यवस्था पर लिखा है, उसकी कृषि व्यवस्था
पर भी लिखा है (श्रीनिवास, देसाई, गुप्ता, हबीब, मुख़र्जी इत्यादि). अगर इन सब
लेखों को देखें और आज की ग्रामीण स्थिति की तुलना हम उस समय की ग्रामीण स्थिति या
कृषि व्यवस्था (इससे मेरा आशय हरित क्रांति से पहले के समय से है) से करें तो हम
पातें हैं की जीवन स्तर, चाहे वो गाँव में हो, या किसान का हो, या फिर अन्य वर्गों
का हो, बेहतर हुआ है. अब पहले से बेहतर अवसर है, सुविधाएँ हैं, तथा जानकारियां भी
हैं. सरकारी नीतियों की पहुँच अब पहले से बेहतर हुई है.
आज़ादी से पहले, जब सूखे की समस्या कहीं ज्यादा विकट थी, किसान पैसे या आर्थिक
सहायता के लिए केवल साहूकार, या फिर
परिवार के दुसरे लोगों पर निर्भर रहता था. पर अगर हम इतिहास के पन्नों को पलटकर
देखें तो पाएंगे की इन सब विकट परिस्थितियों में भी किसान, चाहे वो कितना भी ग़रीब,
असहाय, क्यों न हो, अपनी जान लेने की नहीं सोचता था. उसमें मुश्किल हालातों से
लड़ने की ताकत कहीं जयादा थी. चाहे वो बुंदेलखंड हो, तेलंगाना हो, बाड़मेर और
जैसलमेर का रेगिस्तान हो या फिर मराठवाड़ा हो, किसानो की परेशानियों से हारकर
आत्महत्या की खबर न तो हमें सरकारी आंकड़ों में मिलती है और न ही इन जगहों के लोक
कहानियों या लोक गीतों में. हाँ शहादत में अपनी जान देना अवश्य मिलता है पर
परेशानियों से नहीं.
इन्हीं विकटताओं के बीच ही इस देश के किसान ने आज़ादी के आन्दोलन से लेकर,
भक्ति आन्दोलन, तथा जमींदारी के खिलाफ आन्दोलन किया. उस समय इन आंदोलनों में भाग
लेने पर पैसे भी नहीं मिलते थे और न ही रेलियों में हिस्सा लेने पर मजदूरी मिलती
थी, और शायद मैं अगर ये कहूँ की किसी के पक्ष में होने पर न तो शराब बनती थी और न
ही पैसे बांटे जाते थे तो ग़लत नहीं होगा. पर तब भी किसान इन आंदोलनों में हिस्सा
लेते थे. आखिर क्यों. हमारे साथी आशुतोष वार्ष्णेय ने इस सवाल को अपनी एक पुस्तक
में उठाया पर बिना कोई उत्तर दिए छोड़ दिया क्योंकि ये वाकई एक पेचीदा सवाल है. ऐसा
नहीं है की मेरे पास इसका कोई जवाब है. पर हाँ एक बात तो मैं कह सकता हूँ और शायद
आप मानेंगे भी की किसानों में लड़ने की क्षमता थी. वो जीवन, प्रकृति, ग़रीबी से हारे
नहीं थे. आज की तरह.
येही मेरा आज सवाल है की आखिर आज जब दुनियावी भाषा में समझे तो परिवर्तन आया है
पर तब तक किसान हार चूका था. पर अब हमारा सवाल कुछ दूसरा हो चूका है. आज का सवाल
है की किसान को अगर आर्थिक तौर पर बेहतर बना दिया जाये तो उसका परेशानी का स्तर कम
हो जायेगा.
पर अगर ऐसा है तो सवाल ये है की शहरों में रहने वाले माध्यम वर्ग के लोग
आत्महत्या क्यों करते हैं. अगर हम सरकारी आंकड़ों को देखें तो पता चलता है की एक
बहोत बड़ी संख्या में (किसानों से भी अधिक) आत्महत्या के केस शहरों में दर्ज किये
गए हैं. एनी शब्दों में अगर में सीधे तोर पर से सवाल पूछूं की कहीं ऐसा तो नहीं की
विकास में इस मॉडल का एक परिणाम सीधे तोर पर आत्महत्या ही है. अगर ऐसा है तो फिर
हम आत्महत्या की समस्या के समाधान के लिए बार बार इसी मॉडल की वकालत क्यों कर रहे
हैं?
बहरहाल, मैं फिर से अपने मुख्य प्रशन पर आना चाहता हूँ की ऐसा क्या था की इतनी
सारी आर्थिक, भोगोलिक और सामाजिक समस्याएं होते हुए भी लोग आत्महत्या जैसा कदम
नहीं उठाते थे पर आज जब इन समस्यायों से हम धीरे धीरे निजात पा रहे हैं तो हम मोत
के कुएं में गिरते जा रहे हैं.
मुझे लगता है हमें ये सवाल कम से कम पूछना और सोचना चाहिए की क्या वास्ताव में
अर्थव्यवस्था ही एक कारण है या फिर कुछ और कारण है जो हम देख नहीं पा रहे.
अगर मनोविज्ञान की मानें तो हर इन्सान में परेशानियाँ किसी न किसी रूप में, एक
सोच में छुपी रहती हैं. बस कुछ लोगों में वो अपने चरम पर पहुँच कर अपनी ही मोत का
कारण बन जाती है. ऐसा नहीं हैं की ये प्रवर्तियाँ जन्मजात होती हैं. ये इंसान के
सामाजिक परिवेश से ही विकसित होती हैं. पर से सामाजिक परिवेश होता क्या है.
विज्ञानियों का मानना है की से सामाजिक परिवेश होता है एक समुदाय आधारित व्यवस्था जिसमें
व्यव्क्ति के पास अपने सुख दुःख बाँटने तथा विविध सामाजिक गतिविधियों में शामिल
होने के अवसर रहते हैं. जैसे जैसे ये सामजिक परिवेश बदलता है और ये समुदाय आधारित
व्यवस्था समाप्त होती है या फिर धीरे धीरे व्यक्तिवादी व्यवस्था इसका स्थान लेने
लगी है वैसे वैसे व्यक्ति के तनाव को क्षीण करने वाले ये साधन भी या तो समाप्त
होने लगते हैं या फिर अपना महत्व खो देते हैं.
नयी व्यवस्था में कुछ लोग तो नयी साधनों के साथ चल पड़ते हैं पर कुछ वर्ग ऐसे
भी होते हैं जो पुराणी व्यवस्था में पूरी तरह समाये होते हैं तथा उनके लिए उससे
निकलना तथा नयी व्यवस्था का हिस्सा बन जाना बहुत मुश्कित या नामुमकिन सा होता है.
येही वर्ग आत्महत्या के लिए सबसे अधिक कमजोर होता है.
अब सवाल ये है की वो कौनसे ऐसे परिवर्तन है जो इस वर्ग को सबसे अधिक प्रभावित
करते है तथा की प्रकार हम सामाजिक व्यवस्था में इस वर्ग की पहचान कर सकते हैं.
इसका जिक्र में अगले लेख में करना चाहूँगा
सुधीर