Wednesday, October 8, 2014

एक अध्यापक 

मैं एक अध्यापक हूँ 
बच्चों को पढाता हूँ 
सपनों को बुनना सिखाता हूँ 
कभी-कभी तो लगता है 
समाज भी बदल डालूं 
सब मुझे कहते हैं 'मास्टर'
मेरा पर्यायवाची है ये 
कभी पारिश्रमिक के लिए झगड़ता 
कभी वाटर केनन को झेलता 
मास्टर हूँ मैं 
चुनाव करवाता, तो कभी 
भेड़ बकरियां गिनता 
पोलियो की बूंदें पिलाता 
कभी नोकरी के लिए
लखनऊ-जयपुर की सडको पर 
अफसरों के चक्कर काटता 
ज्ञान उपार्जन करता 
नया समाज बनाता 
एक अन्धेर् ग्रस्त समाज को 
माफ़ करना दोस्तों 
अध्यापक नहीं 
मास्टर ही हूँ मै।  

सुधीर 
मेरा पुरुषत्व 

मैंने दिखाया तो अपना पुरुषत्व ,
उसके साथ  चलकर, 
अब उसकी बारी है ,
मेरे साहस के बदले ,
अपने उस आत्मसम्मान को
कम करने की ,
जो उसमें पहले बसता था 
ताकि वो मेरे परिवार में 
अपनाई जा सके 
मैंने दिखाया तो मर्दानगी 
उसके लिए तनिष्क का 
महंगा कंगन खरीदकर 
अब उसकी बारी है 
अपने उस विवेकशील 
संघर्षशील मस्तिष्क को 
एक तरफ रख देने की 
ताकि मैं उस समाज में 
अपनी मान्यता पा सकूँ 
जाकर बता सकूँ
देखा मेरा पुरुषत्व। 
 
 
सुधीर 

न्याय की खोज 

न्याय की खोज अब पूरी हो चुकी 
रोजाना दिए जाने वाले दिलासों में 
महिलाओं को दिए गए आश्वाशन 
दलितों को दिए जा चुके आरक्षण 
पिछड़ों को भेंट किये गए प्रतिनिधित्व 
अल्पसंख्यकों को दिए गए संवैधानिक प्रावधान 
यूरोप में विकसित न्याय के सिधांत 
भारत में कॉलेजों में दिए व्याख्यान 
नेताओं की रैली में ऊँची आवाज में आव्हान 
क्या अब भी बाकि है कुछ देने को 
न्याय इसी को तो   कहते हैं 
दे तो दिया न्याय, अब और क्या दें 
सुनो, अब पूरी हो चुकी न्याय की खोज. 

Saturday, October 4, 2014

एक कवि

किसे कहते हैं एक कवि
कौन होता है एक कलाकार
क्या होती है इनकी पहचान
क्या ये जन्म से ही ऐसे होते हैं
या फिर कर्म बनता है इन्हें
मैं क्या हूँ , शायद कोशिश
कर रहा हूँ कुछ
बनने की इनमे से , पर पता नहीं
क्यों एक डर है मन में
चुप हो कर, छिप कर
लिखना  चाहता हूँ मैं
मेरी जगह ही क्या है इस नयी
दौड़ती भागती तरक्की करती
रंगीन दुनिया में कौन पढ़ेगा
बेरंग, बिना स्याही की बातें
वही तो होता है एक कलाकार
काश मैं भी  ऐसा होता काश

वो राजनीती जिसे मैं पढता हूँ

मैं जो पढता हूँ वो राजनीती है
राजनीती है ये, राज करने की नीति
इसमें एक राजा होता है
और बाकि सब राज करने हेतु
और कोई नहीं होता, लोग नहीं होते। 
पर अचरज है मुझे, मैं जिन लोगों को देखता हूँ
उनमें भी, बिन राजनीति जाने
एक सोच होती है , मानवता होती है
और साथ ही होती है ,
दुनिया को देखने की एक नज़र
वो नजर जो दुनिया से आगे हो
जिसमे न्याय है, और स्वतंत्रता भी
जिसमे हक़ है और समरसता भी
जिसमे शोषण है पर मिलनसारिता भी
जिसमे युद्ध है और शांति भी.   
पर मैं जो लोकतंत्र पढता हूँ
वो तो कुछ और है , उसमे लोग है,
पर लड़ते हुए
अपने हक़ के लिए, न्याय के लिए
शांति के लिए, समानता के लिए
सब लड़ते हुए, एकदम व्यस्त
बात करने और रुकने की फुर्सत नहीं
मैं सोचता हूँ, क्या पढता हूँ मैं
एक सच या फिर एक झूठ
या फिर कुछ कहीं दोनों के बीच। 
कहीं मेरे ये शब्द - राजनीती और लोकतंत्र
गलत तो नहीं ,
कहीं कुछ और तो नहीं बसता
जहाँ न राज करने की नीति हो
न ही लोकतंत्र के संघर्ष
पर फिर भी लोग हो
बातें हो , बाँटना हो, साथ रहना हो
झगडे हों, पर शांति भी हो
मोहब्बत भी हो संगीत भी
मैं कहीं कुछ गलत तो
नहीं पढ़ रहा हुँ.